अवधेश राय कुछ कह रही थी चांद मुझ से. कुछ नगमें सुनाओ यार के. कहां खोये हो नुर -ए- मौसम. तुम्हारी मंजील नहीं बिते दियार में. कुछ कह रहीथी चींद मुझसे. कयां बताऊं रात -ए- मुशाफिर. गुमनाम हुं, ना कोई कलमों का सागिर्द रात कि निखरती हुश्न में मैं कहां तुम कहां. कोई नहीं अब मंजील के दियार में. #अवध
बुझी - बुझी जल उठती है. मयखाने में दिल की हाला. साकी कह दुं मन की बाते. यौवन की दिल बहकी बाला. जल उठी हो अमावश में भी. रौशनी बन दिल की हाला. छलकी बन अंगूरी राते. मदहोशी बन साकी बाला. #अवध Add captionAwadhesh Kumar Rai
जब - जब कागजों के करीब आता हुं. ना जाने कलम कलम कयों कागजों पर तेरा नाम लिखता हैं. फिरते सुबह शाम तेरी गली के इर्द गिर्द. अपनी मोहब्बत का इजहार करता हैं. चांद पर छांक कर लिखती तेरी यौवन. मैं लिखता फसाना इजहार -ए- मोहब्बत. #अवध👫
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