इजहार


अवधेश राय.
चले थे कभी कुच -ए- सनम की तरफ.
फिर उसके बाद न देखा कभी इरम की तपफ.
जो चांदनी बनी थी उसकै चेहरे पर आकर.
जो रात गई वह जुल्फे खम -ब- खम की तरफ.
कि जैंसे मुद्दतो कोई इधर नहीं गुजरा.

हर एक बार रुख था कदमो की तरफ.
किसा का हुश्न -ए- अदा किस कदर देखुं.
मेरी तरक्की तो होती हैं, कम से कम की तरफ.
ना कोई आह न शिकवा न कोई रंज मलाल.
मेरा निकाह रही इश्क की भरम की तरफ.

अवधेश कुमार राय "अवध".

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